डा0 वंदना नौटियाल डबराल
महिलाओं के जीवन का सबसे बड़ा पहलू जो उन्हें पुरूषों से अलग करता है, वह है उनमें मां बनने का नैसर्गिक गुण होना । मां बनने की तैयारी एक स्त्री में उसके जन्म लेने के पहले से ही भ्रूणावस्था से शुरू हो जाती है। मां को समाज में एक आदर का स्थान भी दिया जाता रहा है और ममता को सर्वोच्च भावना, बस जो नहीं दिया वह एक सुरक्षित एवं स्वस्थ माहौल। जब हाल ही मे दुनिया अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर “ब्रेक द बायस” के संदेश के तहत महिलाओं की घर में, कार्यक्षेत्र में हर तरह की समानता की बात कर रही थी, महिलाओं की आर्थिक एवं राजनैतिक स्तर को सुधारने की कवायद चला रही थी ठीक उसी समय उत्तराखण्ड के पर्वतीय भागों की महिलाएं मां बनने की कीमत अपनी जान देकर चुका रही हैं।
अभी हाल ही में पौडी जिले से हदय विदारक आंकड़े आए हैं जिसमें अप्रैल 2021 से जनवरी 2022 तक दस माह में 12 गर्भवती महिलाओं ने उचित स्वास्थ्य सुविधाओं के अभाव में दम तोड़़ दिया है। पहले तो सड़कों का अभाव, यदि कहीं सड़के ठीक हैं तो उचित समय पर वाहनों का अभाव, यदि यहां से भी पार पा गये तो चिकित्सकों का अभाव, इसी में कई महिलाएं दम तोड़ देती हैं और कई शिशु यदि जन्म के वक्त बच भी जाए तो एक माह के अंदर जीवित रहना उनके लिए चुनौती बन जाता है। सूचना के अधिकार के तहत सितंबर 2021 को एक समूह द्वारा प्राप्त जानकारी के अनुसार राज्य के सभी 13 जिलों में 2016-17 से 2020-21 तक मातृ मृत्यु दर में 122 .6 प्रतिशत की वृद्धि हुई है और इसी अवधि में नवजात शिुशु मृत्यु दर में 238 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। इस अवधि में राज्य में 798 महिलाओं की मृत्यु हुई, 2016-17 में जहां गर्भावस्था जटिलता के चलते 84 महिलाओं की मृत्यु हुई थी वहीं 2021 में यह संख्या 187 हो गई है। एक ताजा सर्वे के अनुसार 65 प्रतिशत से अधिक गर्भवती महिलायें ऐनीमिक हैं और नीति आयोग की रिपोर्ट के अनुसार राज्य के 31 फीसदी क्षेत्र में बच्चे कुपोषण का शिकार हैं।
मातृ शिशु कल्याण की कई योजनाएं भी चल रही हैं परंतु हकीकत यह है कि 20 से 25 प्रतिशत पंजीकृतों तक ही लाभ पहुँच पाता है। पहाड़ों में मां और बच्चों की इस स्थिति के चलते यदि हम पहाड़ से पलायन रूकने की उम्मीद पालते हैं तो हमें निराशा ही हाथ लगेेगी। पहाड़ों से पलायन रोकने के लिए सबसे पहले सड़क, स्वास्थ्य और शिक्षा को पहाड़ चढ़ाना होगा। पहाड़ों की रीढ महिलाएं और बच्चे ही हैं जिनसे पहाड़ आबाद हैं, यदि ये पहाड़ में रूक गए तो पहाड़ का पानी और जवानी दोंनों से पहाड़ लाभान्वित होंगे।
मां बनना कोई बीमारी नहीं है जो कभी कभार किसी व्यक्ति को हो, यह जीवन की एक सतत चलने वाली प्राकृतिक प्रक्रिया है जिसके लिए डाक्टरों की संख्या का अनुपात अन्य डाक्टरों की संख्या से कई गुना ज्यादा होना चाहिए। एसडीसी फाउंडेशन के अनुसार राज्य में मात्र 36 प्रतिशत स्त्री रोग विशेषज्ञ हैं जबकि 64 प्रतिशत पद खाली हैं। इनमें से भी अधिकांश मैदानी भागों में कार्यरत हैं आलम यह है कि कई ब्लाकों में एक भी महिला डॅाक्टर उपलब्ध नहीं है। जन स्वास्थ्य के प्रति सरकार की उदासीनता इस बात से समझी जा सकती है कि स्वास्थ्य को बजट में 5 प्रतिशत हिस्सा भी पूरा नहीं मिल पाता।
महिलाओं का मां बनना न तो उनका व्यक्तिगत निर्णय है न जिम्मेदारी, एक बच्चे का जन्म एवं लालन पालन परिवार व समाज की साझा जिम्मेदारी होती है। यहां तक कि देश के भविष्य के इस मानव संसाधन को स्वस्थ, मजबूत और कुशल बनाने की जिम्मेदारी सरकारों सहित उन सभी संस्थाओं की होती है, जहां से बच्चा भ्रूणावस्था से लेकर अपनी वयस्क होने की उम्र तक गुजरता है।
माना जाता है कि एक स्वस्थ बच्चे को जन्म देने के लिए मां को तनाव रहित स्वास्थ्यवर्धक दिनचर्या अपनानी चाहिए परंतु मां बनने का समाचार कई ऐसी महिलाओं के जीवन में तनाव का जन्म दे देता है जो नौकरी करती हैं । हमारे समाज का रवैया गर्भवती महिलाओं के लिए कितना सकारात्मक एवं सहायक है इसको भारतीय स्टेट बैंक के इस फरमान से समझा जा सकता है जिसमें बैंक ने 3 माह या अधिक की गर्भवती महिला अभ्यर्थियों को मेडिकल रूप से अस्थायी अयोग्य करार देकर ठेंगा दिखा दिया था। इसके अनुसार बच्चे के जन्म के चार माह बाद ही महिला नौकरी के योग्य मानी जा सकती थी। 31 दिसंबर 2021 से लागू होने वाले इस नियम के चलते बैंक को चारों ओर विरोध झेलना पड़ा एवं महिला आयोग द्वारा नोटिस दिए जाने पर फिलहाल इसे स्थगित कर दिया गया। प्राइवेट क्षेत्रों ,मीडिया और कारपोरेट क्षेत्रों में कई ऐसे उदाहरण हैं जिनमें या तो गर्भवती महिला अभ्यर्थी को नौकरी नहीं मिलती है या गर्भवती हो जाने पर उन्हें नौकरी छोड़ने का नोटिस थमा दिया जाता है। टाटा इंस्टीटृयूट ऑफ सोशियल सांइसेंज में प्रोफेसर पद्मिनी स्वामीनाथन ने एक शोध में मैटरनिटी लीव कानून होने के बावजूद भी महिलाओं को इसका लाभ न दिए जाने के कारण ढूंढे तो उन्होंने पाया कि कभी महिलाओं को कैजुअल, डेली या ऐडहाक नियुक्त किए जाने की वजह से कभी नियुक्ति पत्र में बदलाव कर और कभी वेतन का मासिक होने के बजाय एकमुश्त दिए जाने के बिनाह पर वेतन सहित मातृअवकाश का लाभ नहीं दिया जाता, उन्होंने बताया कि कुछ मामलों में छुट्टी की अर्जी का जवाब बर्खास्त करने के पत्र से दिया गया, और जब मामला अदालत में ले जाया गया तो महिला के हक में फैसला आया। परंतु इस अवस्था में महिलाओं को इतनी शारिरिक आर्थिक और मानसिक ताकत नहीं होती कि वे सालों साल चलने वाली अदालती कार्रवाई का सामना कर सके व वे बच्चे को प्राथमिकता देते हुए अपना अधिकार ही छोड़ देती हैं। आश्चर्यजनक बात ये है कि गर्भवती महिलाओं को कंपनियां अपने काम के लिए अनफिट मान लेती हैं परंतु वे घर में 9 से 15 घंटे तक का अवैतनिक श्रम बच्चे के जन्म से कुछ घण्टों पहले तक कर रही होती हैं।
ऐसोचेम द्वारा करवाए गए एक सर्वेक्षण में बताया गया है कि एक चौथाई भारतीय महिलायें मां बनने के बाद अपना कैरिअर ही छोड़ देती हैं। इसका कारण निस्संदेह समाज के उन सभी वर्गों की असंवेदनशीलता है जिनका सहयोग एक मां को अपेक्षित है चाहे उसका परिवार हो या कार्यक्षेत्र या फिर सरकार। कहने को सरकार गर्भवती महिलाओं के लिए कई योजनाएं चलाये जाने पर अपनी पीठ ठोकती है परंतु यह ठीक उसी तरह है जिस तरह भूखे बच्चे को झुनझुना देकर कुछ देर के लिए बहलाया ज सकता है। प्रधानमंत्री मातृवंदन योजना में केवल वे ही मांएं आर्थिक सहयोग की पात्र हैं जो अपने पहले बच्चे को जन्म दे रही हों, यही नहीं जन्म देना ही पर्याप्त नहीं मां स्तनपान भी कराती हों अर्थात बच्चा जीवित भी रहना चाहिए, अगर कोई मां पहले बच्चे को जन्म दे और दुर्भाग्यवश बच्चा जीवित न रह सका तो मां आर्थिक सहयोग की पात्र नहीं रहेगी। उस पर दुर्भाग्य और सरकार दोनों की मार पड़ेगी। सरकार का यह असंवेदनशील रवैया ऐसी मानसिकता वाले परिवारवालों की याद दिलाता है जो मृत बच्चे या लड़कियों को जन्म देने वाली मां से पोषाहार भी छीन लेते हैं।