अलका पंत
उत्तराखंड के जलते, दहकते, सुलगते जंगल पहाड़ों की बेचैनी बढ़ा रहे हैं। जंगलों की यह खौलती आग सिर्फ जंगलों के लिए ही खतरा नहीं बल्कि इस आग ने पहाड़ी जीवन का पर्यावरण भी बिगाड़ दिया है। और चिंताएं सिर्फ आग के फैलते दायरे और बिगड़ते पर्यावरण तक सीमित नहीं हैं। दरअसल,जंगलों की यह आग और राख होती वन संपदा पहाड़ों के भूगोल और भविष्य दोनों को चुनौती दे रही है।
हिमालयी जंगलों में आग न तो कोई नई घटना है और ना ही ऐसा पहली बार हो रहा है। लेकिन इस साल जंगलों में लगी आग ने चिंताएं इसलिए बढ़ा दी हैं क्योंकि फरवरी से ही उत्तराखंड़ के जंगल दहकने लगे हैं। एक रिपोर्ट के मुताबिक फरवरी के तीसरे हफ्ते से ही जंगल सुलगने लगे थे। यह रिपोर्ट कहती है कि उत्तराखंड में 1 से 10 अप्रैल के बीच 313 जंगलों में आग लगी जिससे 374,79 हेक्टेयर क्षेत्रफल प्रभावित हुआ। उत्तराखण्ड वन विभाग के डाटा के अनुसार मंगलवार को जंगल में आग लगने की 126 घटनाओं के कारण 252 हेक्टेयर जंगल जलकर राख हो गया। सोमवार को 47 हेक्टेयर का नुकसान हुआ था यानी एक ही दिन में नुकसान का प्रतिशत 436 प्रतिशत बढ़ गया।
अब सवाल यह है कि आग लगने के महीने पीछे क्यों खिसक रहे हैं? मई के बजाए मार्च अप्रैल में ही जंगल क्यों सुलग रहे हैं? इन सवालों के जवाब इन आंकड़ों में छिपा है। मौसम विभाग के अनुसार उत्तराखंड के प्री मॉनसून सीजन यानी 1 मार्च से 10 अप्रैल के बीच जहां औसत अनुमानित बारिश 56.6 मिमी. होती है,वहीं अलमोड़ा में इसी सीजन में 0 मिमी. बारिश के साथ 100 प्रतिशत कमी दर्ज की गई । पूरे प्रदेश में 96 प्रतिशत रेन डेफिसिट यानी बारिश की कमी दर्ज की गई। यही वह सबसे बड़ी वजह है जिसने आग के दायरे को न सिर्फ खोला है बल्कि महीनों के मायने भी बदल दिए हैं।
बदलता मौसम जंगलों में बढ़ती आग की घटनाओं का एक बड़ा कारण है। मौसम के जानकार कह रहे हैं कि भारत ने 122 वर्षों में इस साल मार्च के महीने में सबसे ज्यादा गर्मी दर्ज की। भारत के पर्वतीय क्षेत्र इस साल की इन गर्म लहर से विशेष रूप से प्रभावित हुए हैं। मौसम विज्ञान विभाग (आईएमडी) के अनुसार मैदानी इलाकों की तरह इस साल औसत तापमान देश के पहाड़ी क्षेत्रों में सामान्य से 5 से 7 डिग्री अधिक रहा है। पिछले वर्षों में बर्फ की मोटी चादर की तुलना में इस साल बद्रीनाथ और केदारनाथ जैसे ऊंचाई वाले स्थानों पर बहुत कम हिमपात हुआ है। हिमाचल में इस बार 21 दिनों तक हीट वेव चली जो एमपी और राजस्थान के बाद तीसरे स्थान पर है। हिमालय पर गर्मी की अहम वजह है बारिश की कमी और पाकिस्तान से बहने वाली गर्म हवाएं। इसके अलावा जो आग अमूमन दो-तीन महीनों में ही लगा करती थी,वह अब 6 महीने तक लगने लगी है।
उत्तराखंड के जंगलों में आग लगने का सिलसिला फरवरी के मध्य में ही शुरू हो गया था। गर्म लहरों के कारण अप्रैल में तीसरे हफ्ते में उत्तराखंड के शहरों में पारा 37 डिग्री पर था जो सामान्य तापमान से 4 डिग्री ज्यादा था। इससे ज्यादातर जंगल शुष्क हो गए और तेज गति से बहने वाली गर्म व सूखी हवाओं के कारण जंगलों के सुलगने का जोखिम बढ़ जाता है। ऐसे में जंगलों के छोटे से हिस्से में लगी आग भी तेजी से फैली।
सरकारी सिस्टम की नाकामी भी जगलों की आग की एक बड़ी वजह है। कहा जा रहा है कि उत्तराखंड के वन विभाग ने 5000 फारेस्ट गार्ड्स को हटा दिया है जिससे जंगलों में अग्निशमन के प्रयास प्रभावित हुए। मौके पर आग बुझाने के लिए कर्मचारयों की कमी भी बड़ी दिक्कत पैदा कर रही है। जबकि जंगलों की आग नेशनल डिजास्टर मैनेजमेंट एक्ट के तहत नहीं आती इसलिए अग्निशमन के प्रबंधन के लिए कोई निश्चित राशि आबंटित नहीं की जाती। यह स्थिति जंगलों को खतरनाक बना रही है। यही नहीं जंगलों की आग की सही वक्त पर सूचना देने वाला रियल टाइम अलर्ट सिस्टम भी नहीं है। इस अलर्ट सिस्टम पर कई बार योजनाएं बन चुकी हैं लेकिन आज तक कोई प्रभावी इंतजाम नहीं हुए।
उत्तराखंड़ के जंगलों में लगी आग पर दावे और वादे हर साल नए और अलग होते है। कार्ययोजना भी हर साल अलग और नई बनती है लेकिन स्थिति यह है कि भीषण आग ने पहाड़ों के पेट को जलाकर राख कर दिया है। जंगलों पर निर्भर कम्युनिटीज का जनजीवन प्रभावित होता हो रहा है और पहाड़ों का पर्यावर्णीय भूगोल संकट में है। पशु-पक्षियों और पेड़ों की कई प्रजातियां आग में जलकर खत्म हो चुकी हैं। जंगलों का पूरा इकोसिस्टम दम तोड़ रहा है। यह एक ऐसी क्षति है जिसे कभी नहीं भरा जा सकेगा। यह आग पहाड़ और उसके जीवन के बीच विभाजन की एक बहुत बड़ी खाई खड़ी कर चुकी है। और अब यह दर्द भी पहाड़ की हर कोशिका में फैलता जा रहा है।