TMP: उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने गुरुवार को राज्यसभा के प्रशिक्षुओं को संबोधित करते हुए देश की न्यायपालिका विशेषकर सुप्रीम कोर्ट की शक्तियों के विस्तार और कार्यपालिका के अधिकार क्षेत्र में हस्तक्षेप पर खुलकर असहमति जताई। उन्होंने संविधान के अनुच्छेद 142 को “लोकतांत्रिक शक्तियों के विरुद्ध एक परमाणु मिसाइल” की संज्ञा दी और इसे न्यायपालिका द्वारा कभी भी, किसी भी समय प्रयोग करने योग्य शक्ति बताया।
धनखड़ ने हाल ही में जस्टिस वर्मा के घर से मिले करोड़ों रुपये की नकदी और जली हुई करेंसी के मामले में भी कटाक्ष किया। उन्होंने सवाल उठाया कि अभी तक एफआईआर क्यों नहीं दर्ज हुई, जबकि मीडिया में सबकुछ उजागर हो चुका है। उन्होंने कहा कि न्यायाधीशों ने खुद को कानून से ऊपर समझ लिया है और सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित तीन सदस्यीय जांच समिति भी कानूनी अधिकार क्षेत्र से बाहर है।
‘राष्ट्रपति को समय सीमा बताना न्यायपालिका का अधिकार नहीं’
धनखड़ ने सुप्रीम कोर्ट द्वारा राष्ट्रपति के लिए निर्धारित समय-सीमा को सख्ती से खारिज करते हुए कहा कि यह कार्यपालिका और विधायिका दोनों के अधिकारों का अतिक्रमण है। उन्होंने अनुच्छेद 143 का हवाला देते हुए साफ किया कि सुप्रीम कोर्ट राष्ट्रपति की समय-सीमा तय नहीं कर सकता, यह संवैधानिक मर्यादाओं का उल्लंघन है।
‘न्यायपालिका नहीं बन सकती सुपर संसद’
उपराष्ट्रपति ने चेतावनी दी कि अगर यही प्रवृत्ति चलती रही, तो न्यायपालिका एक ‘सुपर संसद’ में तब्दील हो जाएगी, जिस पर किसी भी कानून की पकड़ नहीं होगी। उन्होंने यह भी कहा कि जब हर जनप्रतिनिधि को अपनी संपत्ति घोषित करनी पड़ती है, तो जजों पर यह अनिवार्यता क्यों नहीं लागू होती?
‘कोलेजियम प्रणाली संविधान की भावना के खिलाफ’
धनखड़ ने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC) को सुप्रीम कोर्ट द्वारा रद्द किए जाने और कोलेजियम प्रणाली द्वारा जजों की नियुक्ति को भी संविधान की मूल भावना के विरुद्ध बताया। उन्होंने बाबा साहब अंबेडकर के कथनों का हवाला देते हुए कहा कि संविधान में केवल परामर्श की बात कही गई थी, न कि सहमति की।
‘केशवानंद भारती केस की आड़ में मूल अधिकार छीने गए’
धनखड़ ने याद दिलाया कि 1973 के केशवानंद भारती केस में सुप्रीम कोर्ट ने खुद को संविधान का संरक्षक घोषित किया, लेकिन 1975 में आपातकाल के समय जब लोकतंत्र कुचला गया, तो वही सुप्रीम कोर्ट मूकदर्शक बना रहा।
उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ का यह संबोधन न्यायपालिका की सीमाओं, जवाबदेही और पारदर्शिता को लेकर एक कड़ा और ऐतिहासिक हस्तक्षेप माना जा रहा है। उन्होंने यह स्पष्ट किया कि लोकतंत्र में सभी संस्थाओं की मर्यादा और जवाबदेही जरूरी है, चाहे वह सर्वोच्च न्यायालय ही क्यों न हो।