Site icon The Mountain People

लेटरल एंट्री पर सियासी घमासान: जानें, प्रशासनिक सुधार का ये विवादित कदम क्या है?

 

संघ लोक सेवा आयोग (UPSC) की सेवाओं में लेटरल एंट्री को लेकर इन दिनों सियासी गलियारों में गर्माहट है। विपक्ष इस मुद्दे पर जमकर हंगामा कर रहा है, जबकि सरकार इसे प्रशासनिक सुधार के लिए आवश्यक कदम मान रही है। आइए, समझते हैं लेटरल एंट्री की इस पूरी प्रक्रिया और इसके पीछे की कहानी।

संप्रग काल में आई थी अवधारणा

लेटरल एंट्री, अर्थात् निजी क्षेत्र के विशेषज्ञों की सीधी भर्ती, का उद्देश्य केंद्र सरकार के विभिन्न मंत्रालयों में संयुक्त सचिव, निदेशक और उप सचिव जैसे महत्वपूर्ण पदों को विशेषज्ञों के माध्यम से भरना है। यह अवधारणा सबसे पहले 2005 में कांग्रेस के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) सरकार के दौरान उभरी थी। वीरप्पा मोइली की अध्यक्षता में बने दूसरे प्रशासनिक सुधार आयोग (एआरसी) ने इस विचार का समर्थन किया था, जिसमें प्रशासनिक प्रणाली को अधिक प्रभावी, पारदर्शी और नागरिक-अनुकूल बनाने की बात कही गई थी।

विशेषज्ञों की जरूरत और तर्क

एआरसी के अनुसार, कुछ सरकारी भूमिकाओं के लिए विशेष ज्ञान की आवश्यकता होती है, जो पारंपरिक सिविल सेवाओं में हमेशा उपलब्ध नहीं हो सकता। ऐसे में, विषय विशेषज्ञों को शामिल करना जरूरी हो जाता है। यह प्रक्रिया प्रशासन में एक नए दृष्टिकोण और विशेषज्ञता का समावेश करती है, विशेषकर अर्थशास्त्र, वित्त, प्रौद्योगिकी और सार्वजनिक नीति जैसे क्षेत्रों में। हालांकि, इस बात पर भी जोर दिया गया कि लेटरल एंट्री को सिविल सेवाओं की अखंडता और लोकाचार को बनाए रखते हुए लागू किया जाए।

मोदी सरकार के कार्यकाल में औपचारिक शुरुआत

लेटरल एंट्री योजना को औपचारिक रूप से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कार्यकाल में 2018 में शुरू किया गया। पहली बार, सरकार ने संयुक्त सचिव और निदेशक जैसे वरिष्ठ पदों के लिए निजी और सार्वजनिक दोनों क्षेत्रों के पेशेवरों से आवेदन मांगे। यह कदम प्रशासन में विशेषज्ञता और दक्षता लाने के उद्देश्य से उठाया गया, जिसने प्रशासनिक सुधार की दिशा में एक नया आयाम जोड़ा।

Exit mobile version