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राष्ट्रपति मुर्मु बनाम सुप्रीम कोर्ट: विधेयकों पर समयसीमा के फैसले पर उठाए 14 बड़े सवाल

 

 

 

आईएएनएस: देश की संवैधानिक राजनीति में बड़ा टकराव सामने आया है। राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु ने सुप्रीम कोर्ट के उस ऐतिहासिक फैसले पर आपत्ति जताई है, जिसमें विधेयकों पर राज्यपाल और राष्ट्रपति को समयबद्ध निर्णय लेने का निर्देश दिया गया था। राष्ट्रपति ने सीधे तौर पर सुप्रीम कोर्ट से 14 संवैधानिक और विधिक सवाल उठाते हुए न्यायपालिका की भूमिका पर भी गंभीर सवाल खड़े किए हैं।

8 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट ने एक बड़ा फैसला सुनाते हुए कहा था कि राज्यपाल को विधानसभा से पारित किसी भी विधेयक पर अधिकतम तीन महीने में फैसला लेना होगा। यदि विधानसभा उस विधेयक को दोबारा पारित करती है तो राज्यपाल को मात्र एक महीने में निर्णय करना होगा। यही नहीं, यदि विधेयक राष्ट्रपति के पास भेजा जाता है तो राष्ट्रपति को भी तीन महीने के अंदर निर्णय लेना जरूरी होगा।
लेकिन राष्ट्रपति मुर्मु ने इस पर कड़ी आपत्ति जताई है और न्यायपालिका के इस आदेश पर पुनर्विचार की मांग की है।

राष्ट्रपति के सवाल: न्यायपालिका या कार्यपालिका का क्षेत्र?

राष्ट्रपति ने सुप्रीम कोर्ट से पूछा है कि

राष्ट्रपति का कहना है कि संविधान के अनुच्छेद 200 और 201 राज्यपाल और राष्ट्रपति को पूरी संवैधानिक स्वतंत्रता देते हैं। इस तरह कोर्ट का दखल कार्यपालिका के अधिकार क्षेत्र में सीधा हस्तक्षेप है। साथ ही राष्ट्रपति ने यह भी पूछा है कि क्या अनुच्छेद 361 के तहत राज्यपाल और राष्ट्रपति के निर्णयों पर न्यायिक समीक्षा पर पूर्ण प्रतिबंध नहीं है?

संवैधानिक टकराव की नई इबारत

राष्ट्रपति के इस कदम से देश में कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच एक नई संवैधानिक बहस की शुरुआत हो गई है। यह पहला मौका है जब मौजूदा राष्ट्रपति ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर इतनी स्पष्ट आपत्ति जताई है और संवैधानिक सीमाओं को लेकर सीधे सवाल उठाए हैं।

अब सबकी नजर सुप्रीम कोर्ट की प्रतिक्रिया पर है कि क्या वह राष्ट्रपति के इन सवालों पर विचार करेगा या अपने फैसले पर कायम रहेगा।

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