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एक राष्ट्र, एक चुनाव’ पर टकराव: विकास में बाधा या लोकतंत्र का संतुलन? 

 

 

 

पीटीआई : ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ पर जोर देते हुए सरकार ने कहा कि बार-बार आदर्श आचार संहिता लागू होने से विकास कार्य ठप हो जाते हैं और सामान्य जनजीवन पर असर पड़ता है। वहीं, चुनाव आयोग इसे चुनाव प्रचार में समान अवसर देने का अहम साधन मानता है।

क्या कहता है सरकार का प्रस्ताव?
सरकार ने ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ को लागू करने के लिए संविधान संशोधन विधेयक पेश किया है। इसमें तर्क दिया गया कि बार-बार चुनाव कराने से खर्च बढ़ता है, सेवाओं पर असर पड़ता है, और मानव संसाधन को लंबे समय तक चुनावी कार्यों में लगाना पड़ता है।

आयोग ने उठाए सवाल
चुनाव आयोग का मानना है कि आचार संहिता को बाधा के रूप में देखना उचित नहीं है। “यह प्रचार के दौरान सभी पक्षों को बराबरी का मौका देने का सबसे प्रभावी तरीका है,” आयोग ने कहा।

संविधान संशोधन और समिति की जांच
चुनाव आयोग ने ‘एक साथ चुनाव’ के अपने दृष्टिकोण को विधि आयोग और केंद्रीय कानून मंत्रालय के साथ साझा किया है। यह जानकारी संसद की संयुक्त समिति को भी दी गई है, जो विधेयकों की जांच कर रही है।

क्या है असली सवाल?
‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ के बहाने लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं और विकास कार्यों के बीच संतुलन बनाने की कोशिश हो रही है। सवाल यह है कि एक साथ चुनाव से क्या विकास कार्य और जनजीवन में रुकावटें कम होंगी, या फिर यह लोकतांत्रिक मूल्यों पर आंच लाएगा?

“लोकतंत्र की नई दिशा या विकास पर नया मोड़? ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ पर बढ़ी बहस!”
यह मुद्दा अब केवल राजनीतिक बहस का केंद्र नहीं रहा, बल्कि लोकतंत्र और विकास की प्राथमिकताओं के टकराव का प्रतीक बन गया है।

 
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